अम्बुज कुमार
अखिल भारतीय मेडिकल प्रवेश परीक्षा (नीट) में केंद्र सरकार द्वारा ओबीसी के लिए सीटें आरक्षित नहीं की गई है जबकि मंडल कमीशन की सिफारिश लागू होने के बाद शैक्षिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए नौकरियों एवं शिक्षण संस्थानों में 27% सीट आरक्षित करने का प्रावधान है।
ऐसी स्थिति में मेडिकल कोटा शून्य किया जाना इस वर्ग के अधिकारों के साथ गहरा कुठाराघात है, लेकिन सर्वाधिक चिंता इसको लेकर इस वर्ग की चुप्पी पर हो रही है। देश की जनसंख्या का करीब 50-60 फीसदी आबादी होते हुए भी मूकदर्शक बने रहना समझ से परे है। इस संबंध में राज्यस्तर पर जातीय आधार पर पड़ताल करने की कोशिश की गई है।

ओबीसी समाज आपस में राजनीतिक रूप से खंडित है। बिहार के संदर्भ में देखा जाए तो राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए इसे पिछड़ा वर्ग एवं अति पिछड़ा वर्ग में बांटा गया है। पिछड़ा वर्ग को बीसी-2 और अति पिछड़ा को बीसी-1 भी कहा जाता है। पिछड़ा वर्ग में यादव, कुर्मी,कोइरी,बनिया, सोढ़ी आदि जातियां प्रमुख रूप से चिन्हित हैं, वहीं अति पिछड़ों में तेली, तमोली, कहार, हलवाई,बढ़ई, नाई, कानू सहित सैकड़ों जातियों को शामिल किया गया है। अतिपिछड़ों में 90% जातियों की शैक्षिक आर्थिक एवं सामाजिक स्तर अत्यंत निम्न स्तर की है। उनमें राजनीतिक चेतना एवं सूझबूझ का सख्त अभाव है। यह प्रायः श्रमिक वर्ग हैं और विशिष्ट कामगारों के तहत जाने जाते हैं। अभी भी प्रायः दिन- रात मेहनत कर केवल खाने-पीने का जुगाड़ भर करना ही इनके जीवन का मूल मकसद है। कामगार होने के कारण प्रारंभ से ही राजसत्ता के समर्थक बन रहे हैं। इनमें “कोई नृप होहिं, हमें का हानि” वाली स्थिति रही है। जातियों के संघर्ष के इतिहास में ये सदा विवादों से दूर रही हैं। इसलिए मेडिकल सीटों की कटौती से इन्हें प्रत्यक्ष तौर पर खास लेना-देना नहीं है। वर्तमान समय में जदयू इन्हें अपना कोर वोटर मानती आ रही है और चुकी जदयू केंद्र सरकार में शामिल है, इसलिए ये जातियां स्वाभाविक तौर पर सवाल उठाने में सक्षम नहीं है। कुछ लोगों का कहना है कि मेरा बेटा डॉक्टर थोड़े बन पाएगा,,यह बड़े लोगों की समस्या है।




अब पिछड़े वर्गों की स्थिति देखिए
नीतीश कुमार के स्वजातीय नेता होने के कारण कुर्मी उनका स्वाभाविक समर्थक है। केंद्रीय सत्ता में हिस्सेदारी के कारण यह भी बोलने में सक्षम नहीं हैं।उपेंद्र कुशवाहा के जदयू में समागम होते ही कुशवाहा जाति के लोग सरकार का स्वभाविक समर्थक बन गए हैं। सोढ़ी, बनिया बीजेपी के परंपरागत समर्थक वोटर रहे हैं, इसलिए अंततः इन सभी जातियों के लोग एवं नेता मेडिकल सीटों में पिछड़ों के हकमारी पर बोलने की स्थिति में नहीं है। उन नेताओं को अपनी सुख सुविधा का ख्याल है, तो उनके जातियों को उनके मान सम्मान की चिंता है। ऐसी स्थिति में यदि अधिकार छीजन भी हो रहे हो, तो सब लोग सहने के लिए तैयार हैं।

अब पिछड़ों में यादव जाति पर विचार किया जाए। यादव राजद का कोर वोटर के तौर पर सरकार का मुखर विरोधी है।इस मुद्दे पर भी वह खुलकर विरोध कर रहा है,लेकिन इसकी बात नहीं सुनी जा रही है। राजद भी समझ रही है कि इस मुद्दे को उठाने से कोई फायदा नहीं हो सकता।सत्ताधारी लोग तुरंत जंगलराज की बात कर आंदोलन को यादव महत्वाकांक्षा से जोड़ देंगे और अन्य पिछड़े वर्ग के लोग उसी बात को दोहराने लगेंगे।अभी राजद का महंगाई के खिलाफ आंदोलन का ऐलान हुआ है,लेकिन इस आंदोलन में मेडिकल सीट की चर्चा नहीं की गई है,लेकिन प्रतिपक्ष नेता तेजस्वी यादव के सकारात्मक ट्वीट से पार्टी इस मुद्दे पर संवेदनशील दिख रही है। कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने भी प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर इस मुद्दे को छेड़ दी है। अब धीरे धीरे सामाजिक संगठन भी सामने आने लगे हैं। बहरहाल,अब ऐसी स्थिति में पिछड़े वर्गों के साथ आने वाले दौर में और भी कठिनाइयां हो सकती हैं। सरकार कठोर निर्णय लेते हुए मंडल आरक्षण को भी समाप्त कर सकती है, क्योंकि वह संवैधानिक रूप से सशक्त व्यवस्था नहीं है। विदित हो कि आजादी के बाद काका कालेलकर से लेकर मंडल के दौर तक इस मुद्दे को लेकर काफी आवाज उठाई गई है। 1980 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद 1990 में जनता दल की सरकार में बी पी सिंह के नेतृत्व में मंडल आरक्षण लागू हुआ था।

अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों का इतिहास संघर्ष, त्याग एवं बलिदान का रहा है। इन्होंने इसी के बदौलत अंग्रेजों से लेकर आजादी के बाद तक भी छोटे बड़े आंदोलन किए।इसी को हथियार बनाकर बाबा साहब के माध्यम से अपने अधिकारों को प्राप्त किया। आज भी ये जातियां सजग हैं और संघर्ष के लिए सदा तैयार रहती हैं। एससी- एसटी एक्ट के समय का देशव्यापी आंदोलन इसका जीता जागता सबूत है। इनकी अपनी विचारधारा है, उसी के तहत चलते हैं।
अब ऐसी विकट परिस्थितियों में पिछड़े वर्गों के पास सड़क पर निकल कर आंदोलन कर सदन में बैठे लोगों का ध्यान आकृष्ट करने के सिवाय कोई उपाय नहीं है। अपने-अपने सांसदों का घेराव भी रणनीति का हिस्सा हो सकता है। हमें याद है कि विश्वविद्यालयों में प्राध्यापकों की नियुक्ति में 13 पॉइंट आरक्षण रोस्टर बनाने के बाद जिस प्रकार का देशव्यापी विरोध प्रदर्शन हुआ था और सरकार को वह कदम वापस लेना पड़ा था, उसी प्रकार के फिर से एक आंदोलन की जरूरत महसूस हो रही है। जातियों के विश्लेषण में अपवाद भी हो सकते हैं। प्रगतिशील धारा के लोग कमोबेश हर जातियों में मौजूद रहते हैं।
(लेखक जाने माने समीक्षक हैं और रेपुरा, दाउदनगर, औरंगाबाद में रहते हैं।)